"भाषा संस्कृति का अविभाज्य अंग ही नहीं शिरोमणि साधन है"

महामहोपाध्याय भद्रेश स्वामी संस्कृत भाषा के व्याकरण का अध्ययन- अध्यापन करने वाले भारत के बड़े विद्वान हैं

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महामहोपाध्याय भद्रेशदास स्वामी भारत में संस्कृत भाषा के व्याकरण का अध्ययन- अध्यापन करने वाले बड़े विद्वान हैं, साथ ही वे संस्कृत, हिंदी, मराठी, गुजराती और अंग्रेजी, सहित पांच भाषाओं के जानकर है।


दुनिया भर में कई रिपोर्ट्स बहु-भाषी होने के फायदे पर प्रकाशित की गयी है। 

ऑस्ट्रेलिया यात्रा पर आये महामहोपाध्याय भद्रेशदास स्वामी से बात कर हमने जाना की बहु-भाषी होने के क्या मायने है और भाषा सीखने का सरल तरीका क्या है।  

भद्रेशदास स्वामी ने एसबीएस हिंदी को बताया कि “किसी भी भाषा को सीखने का सबसे सरल तरीका उसके बोलने वालो के संपर्क में समय बिताना है, इससे न केवल भाषा का ज्ञान होगा बल्कि उस संस्कृति की समझ भी बढ़ेगी।”

वे कहते हैं कि भाषा और भावना, इन दोनों को कभी अलग नहीं किया जा सकता है। भावना को ठीक से समझने के लिए भाषा की गहराई हमे प्राप्त करनी होती है, क्योंकि व्याकरण और तात्पर्य की समझ न होने पर अर्थ का अनर्थ हो सकता है। 

मनुष्य अपनी संवेदनाओं को प्रकट करने के लिए अपनी भाषा का उपयोग बखूबी करता है, ख़ुशी, दुख, राग, द्धेष और करुणा सब को समझने के लिए भाषा उपयोगी होती है। 

“मुझे लगता है की भाषा संस्कृति का अविभाज्य अंग या शिरोमणि साधन है क्योंकि इसी के द्वारा आपकी भावनाओं का अर्थ-करण या इंटरप्रिटेशन किया जाएगा,” स्वामी जी बताते है। 

उनका कहना है कि संस्कृत और हिंदी भाषा एक-दूसरे को प्राकृतिक रूप से पोसती हैं। 

“आपको जान कर आश्चर्य होगा कि समय के साथ संस्कारो में हीनता आ जाती है तो ये आपकी मातृभाषा ही है जो उसे ठीक करने में मदद करती है, इसलिए मेरे विचार में मातृभाषा को संजोना महत्वपूर्ण है।”

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